Wednesday, December 26, 2012

एक बार फ़िर देश शर्मशार (अब तो आदत सी हो गई हैं)

जब से हमने लिखने पढ़ने की आदत डाली है या यू कहे जब से हमनें होश
सम्भाला है, तब से ले कर आज तक ! दिल्ली में हुई इस दिल दहला देने वाली
घटना जैसी ना जाने कितनी ही घटनाएँ पढ़ने सुनाने को मिलती रहीं है। पिछले
करीब डेढ दशकों में कई दफ़ा मोमबत्तियों कि रोशनियों में ऐसी खबरों को
रैलियों के रुप में निकलते देखा और पढा है। लेकिन बेचारी मोमबत्तियॉ
कितनी देर तक उस समाज को रौशन करती रहेंगी जो इसका आदि सा हो गया है।
आखिर 2-4 दिन बाद वो भी शांत पड जातीं है और हमारा चीर- परिचित समाज फ़िर
हमारे सामने अपना मुखौटा बदल खडा होता है और हम सभी अपने-अपने कामों को
लौट जाते है।
इस बार थोडा अलग देखने को ये मिल रहा है की हमारे तथाकथित जनप्रतिनिधि भी
दो-चार दिन हो हल्ला में शामिल दिख रहे है। कुछ ऐसी घटनाओं के लिए कडे
कानून की माँग तो कुछ फ़ांसी की माँग को दोहरा रहे हैं
निश्चित ही दिल्ली में ऐसी घटनाक्रम से हम पहली बार रुबरु नहीं हुए
हैं,अभि ज्यादा दिन नहीं हुआ, जब मुनिरका वाली सामूहिक दुष्कर्म (गैंग
रेप) की घटना इसी राजधानी की सड़कों पर देखी गई। जब भी ऐसी घटनाएँ होती
है तो खुब चर्चायें चलती है टीवी,रेडियों ,मीडिया ,समाज, करिब हरेक तबके
मे ऐसी चर्चायें आम रहती है।तरह तरह के सुझाव सामने आते हैं, लेकिन ऐसी
मानसिकता वालें लोग हमारे ईद-गिर्द ही रहते है या कहीं ना कहीं इसी समाज
मे मौजूद है। इन्हे इसी समाज में खाद,पानी,हासिल होता है।ऐसी घिनौनी
अपराध की मानसिकता आसमान से नहीं टपकती, बल्कि हर समय उन छोटे-छोटे
लम्हों में हमारे ईद-गिर्द पलती बढ़ती हैं जिन्हें हम या तो समझना नहीं
चाहते या फ़िर समझकर भी उसकी अनदेखी करते है। दरअसल, जब हम पडोसी की लडकी
की आजाद ख्याली को उसके चरित्र से जोड़ते है। या कोई जोड़ रहा हो तो
मुस्करा भर देते है। तब हम सिर्फ़ औरतों के विरुद्ध नहीं, उन तमाम कमजोर
लोगों के विरुद्ध दरिंदगी की नीव रख रहे होते है। मगर ये विषय कभी नहीं
बन पाता है। ऐसी मानसिकता बदलने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए, इस पर
विचार होना दूर की बात है।बात उठेंगी तो ये की बालात्कारीयों को सरेआम
फ़ासी,या म्रृत्युदण्ड मिले, एक और नया बिल, नया कानून बने।
सवाल यह है कि गुस्से से उबल रहा देश इसकी
पुनरावृती के लिए क्यों मजबूर हो रह है? आखिर दरिन्दे इतने बेखौफ़ क्यों
है? उन्हें कोई डर, अपराध बोध या चिन्ता क्यों नहीं होती ?क्यों किसी घर
जाती हुई महिला कर्मचारी, छात्रा, के साथ बर्बर दरिन्दगी की घटना के कुछ
महिनों बाद ही उससे भी बडी दरिंदगी की घटना घट जाती है? इन सवालों पर
सोचना ही होगा, क्योंकि ये सवाल बार-बार हमारे गुस्से को आइना दिखाते है।
क्योंकि ये सवाल बार-बार हमारे गुस्से को नपुंसक ठहराते है। आखिर गुस्से
में कोइ शर्मसार देश क्या करे कि अगली बार फ़िर उसे शर्मसार न होना पडे।
अगर हम इस उबल रहे गुस्से और नफ़रत के बीच थोड़ी शांति से इस सवाल पर
विचार करे तो हम जिस नतीजे पर पहुँचते है, वे हमें आश्वस्त नहीं करते कि
फ़िर हमे किसी झकझोर देने वाली शर्मनाक घटना से दो-चार नही होना पडेगा।
दरअसल अपराध हिम्मत का नहीं होता है। मनोवैज्ञानिक हमेशा से ये बताते
रहे है की अपराधी सबसे कम हिम्मती होते है। अपराध महज कानून से नही
रुकते, क्योंकि अगर सख्त कानून और कठोर सजा इतने ही प्रभावी हथियार होते
तो अमेरिका में पिछले 30 सालों मे 400 गुना अपराधियों मे इजाफ़ा नही होता?
मध्य-पूर्व के देशों मे अपराध का नामोनिशान न होता, क्योंकि वहां आज भी
सख्ती के नाम पर तमाम बर्बर सजाए मौजूद है।
दरअसल अपराध के लिये हिम्मत या दुस्साहस तभी पस्त होता है, जब उसके लिये
सामाजिक माहौल हो। मै इस बात का कभी समर्थन नही करता की सख्त कानून ना
हो, और न ही इस बात को कभी आधार बनाना चाहूँगा कि
लड़कियों या महिलाओं को अपने विरुद्ध होने वालें अपराधों के लिए सदा सजग
रहना चाहिएं। सजगता ऐसी कोई विकल्प नहीं है। मगर सजकता सहजता से जितनी
निभाई जा सके उतनी तो ठीक है लेकिन इसको डर बना लेना उचित नहीं है। डर कर
रहना मतलब अपनी तमाम मासूमियतों का गला घोट देना है। फ़िर क्या किया जाये
की ऐसी घटनाओं से पुनः शर्मसार ना होना पडे। ऐसा नही है कि दिल्ली या देश
का गुस्सा झूठा है, गुस्सा, एकजुटता, उबाल सब कुछ सही है ! असली है ! पर
दिक्कत यह है कि यह सिर्फ़ एक छोके की तरह आता है ओर वैसे ही चला जाता है,
हम वैसे लोग हो गये है जो किसी बडे धमाके के बाद कुछ देर के लिये सजक
रहते है, चौकन्ने रहते है, फ़िर वही मदहोशी में लौट जाते है। यह हमारे
लिये सबसे निर्णायक वक्त है कि बार-बार शर्मसार होते है और ये कितना दिन
चलेगा ? वक्त आ गया है कि हम अपने समाज के कमजोर हिस्से पर चोट करे जिसके
बिना इसमें कोई ठोस परिवर्तन होना सम्भव नहीं है।

आज 'अदम गोंडवी' के कुछ लाइने यहां याद आ रहीं है ;

"  टीवी से अखबार तक गर सेक्स की बौछार हो।
फ़िर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो"  ॥

जिस्म क्या है रुह तक सब कुछ खुलासा देखिए।
आप भी इस भीड़ में घुसकर तमाशा देखिए ॥

इस व्यवस्था ने नयी पीढी को आखिर क्या दिया।
सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फ़ास की ॥

जिस्म की भूख कहें या हवस का ज्वार कहें ।
सतही जज्बे को मुनासिब नहीं है प्यार कहें ॥

चार अण्डे उबालकर रखना।
एक बोतल निकालक्र रखना।
घर तुम्हारे भी आयेंगे साहब।
बीबी-बच्चे संभालकर रखना।


                                                                - अभिषेक आनन्द