(THE SHAHEED-E-AAZAM)
क्यों इतने बेचैन थे तुम मरने को भगत,
मै समझता तो हूँ पर समझ नहीं पाता ?
कभी ये खयाल आता है कि तुम्हारी रूह रोती होगी
पर मै भी तुम्हारी तरह एक नास्तिक हूँ और जानता और मानता हूँ, कि तुम बस सोच थे एक जिस्म के
साथ।
जो शायद खतम हो गयी,तुम्हारी मौत के ठीक बाद
तुम कहते थे जिस्म मरते है, विचार नहीं मरते
पर दोस्त तुम शायद गलत नही थे,
मगर पूरे नही थे सही वरना क्यो कही तुम्हारी छाप
इस मुल्क में दिखती ही
नहीं।
मिट्टी से तुम्हारी बोई बन्दूकें नही उगीं
क्रांति की तलवार विचारो की सान पे रगड़ खा कर पैनी नही
कुंद हो गये ।
जिस बदलाव की बात की थी तुमने,
वो तो शुरुआत में ही
बंद हो गये
तुम कहते थे ये लोग,तमाशबीन लोग जाग उठेंगे
देखो तुम्हे सोये आधी सदी हो गयी,पर ये मुर्दा तमाशबीन
लोग नही उठे।
तुम किसानो ,मजदूरों के हक़ की बात करते थे
आज किसान मर रहे है, मजदूर अपने ही सर्बहारा दलालों
के हाथों गये ठगे।
और तो और, तुम मर के जिन बुजदिल लोगो को जिन्दा करना
चाहते थे
देखो उन्हे तुमने क्या बना दिया ?
तुम इस लिये मरने को उताबले थे कि इससे इन मुर्दों
में उबाल आयेगा,
उन्हें तुमने और ज्यादा डरा दिया !
कि तुम्हारा महबूब वतन मानता है, कि तुम चले गये सो
देश का ये हाल है।
पर तुम किस घर में आओगे, सबके लिये ये बहुत कड़वा सवाल
है
कि तुम्हारा हाल देख के कोई नहीं चाहता, कि तुम्हारा
किया उसकी औलाद भी करे।
जिस तरह तुम मरे, उसकी औलाद भी वैसे ही मरे
और तो और, जिस नौजवान की नसों में लहू बन कर बहने की
तुमने तमन्ना की थी
उसकी सोच और हाल दिल को रूलाता है
ये तुम्हारा बदलाव का
दूत, तुम्हे और तुम्हारी चली राहो को पागलपन बताता है।
ये सिर्फ़ नौकरी,शादी और सेक्स की मरीचिका मे सोया हुआ
है
दहेज,जाति,मजहबी कट्टरपन जिनसे तुम्हे नफ़रत थी,
ये आज उन्हीं
सब चीजों मे खोया हुआ है।
हरा तो कभी तुम्हारा
हुआ हीं नहीं ? और तो और तुम्हारा बसन्ती रंग, अब नफ़रत के पुजारियों ने अपना झंडा बना लिया है।
देखो ना तुम्हारी लाश का आखिरी निशान तक मिटा दिया गया
है
हरे और बसन्ती के खेल में,देखो तुम्हारे महबूब वतन
को तोड़
इसके टुकड़े कर, कही बांग्लादेश,कहीं पाकिस्तान बना
दिया गया है।
फ़िर ये निकम्मी हुकूमत अगर तुम्हे शहीद नहीं मानती तो
अचरज कैसा ?
तुम्हारा हश्र खुद तुम्हारे दिल ने किया है, दोषी ये
सब लोग नही तुम खुद हो ?
क्या तुम नही जानते थे, ये मतलबी ,बुजदिल कौम जो सिर्फ़ गुलामी,करना और कराना जानती है।
ये इस मुल्क के लिये,इन लोगो के लिये,आज़ादी के लिये,तुम्हारे जुनून को कभी समझेगी ?
दोषी तुम खुद हो,तुमने जानते बूझते ये गलती की
ऐसे लोगों, ऐसी कौम से मोहब्बत की।
और तो और ऐसे गीदड़ों और गिद्धों के इश्क मे दीवाना हो
जाँ दे दी
तुम मरे ही क्यूँ ? या तो तुम पागल थे या नादान थे।
अगर इस कौम की हकीकत देख के भी अन्जान थे
के जब तुम्हे मुकद्दमे और फ़ाँसी के लिये ले जाया जा
रहा था,
ये मुर्दे बस तमाशा देख रहे थे
जो आज भी बस तमाशा देखते है ,और मौका पा कर तुम्हारे सपनों की चिता पर रोटी सेंकते है।
मै समझता हूँ तुम्हारी घुटन,मुल्क के लिये मोहब्बत,तुम्हारा दर्द और जज्बात भी।
तभी कहता हूँ पागल थे तुम,और अच्छा था गोरों ने तुम्हें
मार दिया ?वरना मेरे दोस्त! तुम्हारा हश्र और बुरा होता
कि जिन लोगों के इश्क में तुम मरने पे आमादा थे,
वही तुम्हारा वो हाल करते कि
तुम्हारे हाल पे इन्सान क्या पत्थर भी रोता....
लेखक परिचय-
इस कविता को अपने जजबात और पुरी संजीदगी से लिखा है संजय कुमार ने (जिन्हे हम करीब से जनने वाले सोनू जी के नाम से पुकारते है) जिनकी पुरी शिक्षा-दिक्षा दिल्ली में हुइ है। जो अपने लेखन क्षमता का लोहा कई अन्य क्षेत्रों में भी मनवा चूके है।
Blog post by-Abhishek Anand