Sunday, April 8, 2012

फांसी को फांसी (दया याचिका की आड़ में कानून का मजाक )


आज फिर से फांसी को फांसी देने की बात जोरों पर है! लगता है अब ये भी पुरवा हवा के साथ उठाने वाले दर्द की तरह समय-समय पर उठने लगा है I अब दया याचिकाए राजनीति करने की नया हथियार बन गई है I अब तक तो अयोध्या, बाबरी , गोधरा जैसे मुद्दे ही राजनीतिक दलों के लिए राजनीति के सहज मुद्दे हुआ करते थे पर अब कुछ सालों से ये फांसी  जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी राजनीति करने से  बाज नहीं आ रहे है I
           भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के हत्यारे मुरुगन की फांसी की सजा वर्षो बाद भले ही रद्द हो गई, पर आज भी संसद पर हमले के दोषी अफजल या फिर पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह समेत लगभग डेढ़ दर्जन दया याचिकाए भारत के राष्ट्रपति के पास दया के आश में लंबित है (अब बलवंत सिंह की फांसी की सजा को भी 16  सालों बाद माफ़ कर दिया गया है.)I पता नहीं ये कैसी दया है जो 16 -16  सालों तक दया की बाट खोज रही है! उसके बाद इतने सालों बाद अगर किसी को दया  मिलती भी है तो ठीक वैसे ही जुर्म के लिए सजा काट रहे कितने ही अपराधी इस दया रूपी महाकृपा से महरूम रह जाते है, और वो आज भी हर रोज अपने को फांसी पर लटकते हुए पाते है पर मौत है की आती नहीं I
          यहाँ बलवंत सिंह राजोआना के मामले पर थोड़ी चर्चा जरुरी है, ये मामला थोड़ा अलग है, इसके पक्ष में पंजाब के मुख्यमंत्री समेत दुसरे दल भी खड़े होगये है वैसे ही अफजल गुरु के मामले में जम्मू कश्मीर के कुछ दल आवाज उठाने की कोशिश कर चुके है! आतंकियों के पक्ष में राजनीतिज्ञों की इस मुहिम ने एक गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है I इससे इस देश में कानून का राज होने की बात भी संदेह के घेरे में आ गई हैI ऐसा इसलिए हो रहा है क्योकि दया याचिकाओ के आड़ में एक गंभीर राजनीति का खेल चल रहा है I
           राजीव गाँधी के हत्यारे के मामले में कांग्रेस का रुख देखा जाए या  अफजल के मामले में जो हो रहा है उसे देखा जाए, लेकिन सरकार को इससे परे होना चाहिए I सरकार किसी भी कीमत पर आतंकी या हत्यारों की फांसी रोकने में सहायक नही हो सकती है I
                                                           यह सरकार की विफलता कही जा सकती है देश में आपराधिक न्याय प्रणाली ध्वस्त हो रही है, या ये कहा जाए ध्वस्त होगई है I यहाँ पहले ही किसी मामले को अंतिम फैसले तक पहुचने में सालों साल का वक़्त लग जाता है और जब अंतिम फैसला फांसी के रूप में आता है तो राष्ट्रपति के पास दया याचिका !  ये याचिका फाइलों  में वंहा सालों तक पड़ी रहती है I तब तक अपराधी के खिलाफ लोगो का गुस्सा  धीरे-धीरे कम हो जाता है I इसके बाद राजनीतिक पार्टियों  को राजनीति का रोटी सेकने का अवसर मिल जाता है I यह कहानी  बलवंत सिंह के मामले में भी दोहराई जा रही है इसको 16 साल बाद फांसी दी जा रही है ! जो की अपने आप में एक भद्दा मजाक है I
            आतंकी और हत्यारों की दया याचिकाए कानून के साथ मजाक हैं ? जब किसी गुनाहगार का गुनाह साबित हो गया है सुप्रीम कोर्ट तक ने उसे दोषी करार दिया है फिर उसे माफ़ करने का औचित्य क्या है? माफ़ ही करना है तो सभी फांसी के सजा पाए अपराधियों को माफ़ कर दो ! कुछ लोगो को माफ़ी और कुछ लोगो को फांसी पर चढ़ाना कहा का न्याय है? या तो यहाँ माफ़ भी चुन -चुन कर किया जाता है ! जब नारायणन राष्ट्रपति थे तो आन्ध्र प्रदेश में 18 लोगों को जिन्दा जलाने वाले की फांसी की सजा माफ़ कर दी गई थी क्यों.? क्या उन 18 लोगो के साथ हमारी दया-याचिका ने न्याय किया ?
                                           यंहा सवाल उठता है की दया याचिकाओं का मतलब क्या है अगर देना ही है तो दें ! अन्यथा फांसी के सजा को ही हटा दिया जाए?
                       किसी मामले की जाँच ,विचारण,अपराधियों  तक पहुचने में उनके खिलाफ सबूत जुटाने में पहले ही काफी समय और धन खर्च होता है I इसके लिए जाँच अधिकारी रात दिन एक कर के मेहनत-मसकत करते है I इसके बाद अपराधी को सजा दिलाने के लिए जाँच अधिकारियो को कई सालों तक अदालत का चक्कर काटना पड़ता है और अंततः अपराधी को सजा मिलने पर जाँच अधिकारियो को अपने मेहनत पर गर्व होता है ! पर दया याचिकाए एक झटके में उनकी मेहनत पर  पानी फेर देती है I
      अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला करने वाले आतंकियों को अमेरिका ने एक साल के अन्दर सजा दे देता है I पर हमारे यंहा सरकार संसद पर हमला करने वाले आतंकी को अदालत से मिली सजा को देने की हिम्मत नही जुटा पाती है ! ये  हमारी राजनीति कमजोरी को दर्शाता है तथा हमारे जाँच अधिकारियो के मनोबल को कमजोर करता है ,सरकार का मजाक बनाता है और साथ ही कानून का मजाक बनाता है ! अपराधी यदि आतंकी है या प्रभावशाली है तो उसका कुछ नही होगा, होगी तो सिर्फ राजनीति ! !!!!!!!???????





Blog post and write by-  
Abhishek Anand 
legal freedom "   a firm for legal solution"

Typed by - Aditya singh

Saturday, March 17, 2012

Tuesday, March 13, 2012

Constitutional Provisions on Child Labour



Article 21 A: Right to Education
The State shall provide free and
compulsory education to all
children of the age of 6 to 14
years in such manner as the
State, by law, may determine.

Article 24: Prohibition of
employment of children in
factories, etc.
No child below the age fourteen
years shall be employed in work
in any factory or mine or engaged
in any other hazardous
employment.

Article 39: The State shall, in particular,
direct its policy towards securing:-
(e) that the health and strength of workers,
men and women, and the tender age of
children are not abused and that citizens
are not forced by economic necessity to
enter avocations unsuited to their age or
strength.

Saturday, March 3, 2012

smart shopping tips

मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे,

legal-freedom.blogspot.in
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे,
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएंगे।
हौले-हौले पांव हिलाओ,जल सोया है छेड़ो मत,
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे।
थोड़ा आँच बनी रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो,
कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आयेंगे ।
उनको क्या मालूम विरुपित इस सिकता पर क्या बीती,
वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आएँगे ।
रह-रह आँखो में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी,
आगे और बढें तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे ।
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता,
हम घर में भटके हैं, कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे ।
हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए,
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएँगे ।



-दुष्यन्त कुमार
blog post by- Abhishek Anand