Tuesday, December 27, 2011

न होती मज़हबी दूरियाँ,


न होती मज़हबी दूरियाँ, न होती ऊंच नींच की मजबूरियांआदम दिल यूँ शख्त न होता, जो ये तख़्त न होता     तो जान पाते की सबकी रगों में खून एक रंग है, सियासत की वजह से ही आपस में जंग हैलोगो ने बहाया यूँ रक्त न होता, जो ये तख़्त न होता साम दाम दंड भेद जिसके लिए, जात पात रंग भेद जिसके लिएसत्ता के लिए आदमी इतना आसक्त न होता, जो ये तख्त न होता 

हटा दो ऐसे तख़्त को, हर शख्स में भेद करता हैमिटा दो ऐसे तख़्त को, जिस थाली में खाया उसी में छेद करता हैआओ आगाज़ करें एक नए रिवाज़ कासमर्थन करें जनता की हर आवाज़ कान हो कोई तख़्त, न ही हो कोई औहदाजमीं से जुड़ें ऐसे जैसे जुड़ता है कोई पौधाआओ एक सभ्य समाज, नयी व्यवस्था, नए हिन्दुस्तां का सपना बुनेजमीन से जुड़े, मिटटी और आदमी की कद्र करने वालों को अपना नेता चुनेताकि हम तो कहें दुनिया भी कहे हमसे सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां तुम्हारा

जला दो ऐसे तख़्त को, जो रक्त में भेद करता है

Blog post- Abhishek Anand
legal-freedom.blogspot.com

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