Thursday, September 15, 2011

वैश़्विकरण के इस आधुनिक दौर में सामाजिक-आर्थिक न्याय


देश की आजदी के 64 वर्षों बाद भी सामाजिक-आर्थिक रुप से वंचित तबका अगर न्याय पाने की आस लगाये हुए है, तो भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में इससे बडी विड्म्बना और क्या हो सकती है? संविधान निर्माण के समय संविधान निर्मताओं ने बडी-बडी बातें कही और उस दौर मे ढेर सारे कनूनों को सम्मिलित व पारित करवया, लेकिन यह भावना संविधान एवं कानून के किताबों में सिमट कर रह गयी है, और समाज में ये लोग न्याय की उम्मीद में अभी भी इधर-उधर भटक रहें है। यह भटकाव उसकी माली व दयनीय स्थिति को भी दर्शाता है, जिनको पेट भरने के लिये सरकरी अनाजों कि राह देखनी पडती हो, भला उसके लिये आज की इस महँगी न्याय व्यवस्था में न्याय की उम्मीद करना भी बेमानी ही होगा।
वैश़्विकरण के इस आधुनिक दौर में जहाँ ग्लोबल गाँव की संकल्पना सामने आयी है। वहीं देश में सामाजिक-आर्थिक रुप से पिछड़ें लोग अभी भी मुख्याधारा की राजनीति में अपने को छला हुआ महसूस कर रहें है, क्योंकि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी वह समाज में बराबरी का अवसर पाने के लिये संघर्षरत है, वो इसलिए कि समाज के कुछ साधन सम्पन्न और ताकतवर लोग उन्हे कानून के मकडजाल मे उलझाये हुए है। यही मकडजाल उसकी नीयती ना बन जाये, इसलिए हम साथिंयों ने ऐसे वंचित तबके की आस (न्याय) को जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन करने का निर्णय लिया है, ताकि उम्मीद की मशाल बुझने न पाये। समाज में सभी की हैसियत बराबरी की होनी चहिये, न कि भेदभावपूर्ण, चाहे बात न्याय पाने कि अवसर की ही क्यों न हों। समाजिक बराबरी से वचिंत तबका देश में आत्म सम्मान और गौरवपूर्ण जीवन जी सकेगा और इसके साथ वह देश की प्रगति का हिस्सा भी बनेगा,जिससे सामाजिक सौहार्द का माहौल बनेगा, जो सामाजिक गतिशिलता के लिये आवश्यक ही नहीं बल्की जरुरी भी है,लेकिन कुछ मुठठी भर लोग समाज मे ऐसा नहीं होने देना चाहतें हैं, ऐसी ही शक्तियों को हम साथी मिलकर न्यायिक तरीके से नेस्तेनाबूत करेंगे ।
देश की आबादी की बहुसंख्यक जनता गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है। अर्जुनसेन समिति के अनुसार देश की 80% जनता 20रु प्रतिदिन खर्च करके जीवन क निर्वहन कर रही है, तो प्रश्न उठना लाजमी है,कि वह अपने हीतों की रक्षा के लिए न्यायलय का दरवाजा कैसे खटखटा सकती है। अतः इन जायज सवालों को कुरेदने पर, जमीनी हकीकत का ज्ञान स्वाभाविक रुप से हो गया हो जायेगा।
 एक बात और, 19वीं शताब्दी में यूरोप के कुछ देशों में नारी मुक्ति के लिए तिव्र आंन्दोलन प्रारम्भ हुए, जिनके मुख्य बिन्दु थे, नारी की स्वतंत्रता, समानता, न्याय की सामान अवधारणा, व राजनीत मे बराबर की भागीदारी। और इस दिशा मे काफ़ी प्रगति भी हुई, लेकिन यह विडम्बना ही है कि भारतीय समाज में इस तरह का कोई विशेष आंदोलन नहीं हुआ अगर हुआ भी तो उसका प्रभाव न के बराबर रहा। और नारी मुक्ति के तमाम मौजूदा सवाल अभी भी कायम है,अगर किसी समाज मे नारी की दशा उच्च-स्तर की होती है, अर्थात अगर उन्हें भी अगर बराबरी का अधिकार मिला हो तो वह समाज विकसित कहा जाता है, लेकिन भारतीय पुरुष प्रधान समाज अपनी पकड अभी ढीली नहीं होने देना चहता है, क्योंकि उसे भय है, कि अगर स्त्री मुक्त हुई तो उनकी राज्य सत्ता की बागडोर खतरे मे पड जायेगी। इसीलिए वह शोषण के नये-नये यंत्र विकसित करने लगा है।
भारतीय समाज में नारी को अपनी सामाजिक-आर्थिक, और राजनैतिक भूमिका तय करने के लिए स्वंय को आगे लाना ही होगा, तभी सार्थक दिशा मे पहल हो पायेगी। इसका जिता जगता उदहरण- महिला आरक्षण विधेयक है,जो महिलाओं के दबाव तो लया गया पर संसद मे पारित होने के लिए अभी भी दूर की राह साबित हो रहा है। सवाल यह है, कि नारी मुक्ति के लिये प्रयास किसे करना होगा ! जबाब मिलता है- नारी को स्वयं लड़ कर करना होगा, न कि किसी के रहमो-करम पर लडाई लडनी होगी।
साथियों, मारे लाँ फ़र्म की स्थापना को हम नारी मुक्ति के लिए एक कदम के रुप में भी देख रहे हैं, क्योंकि वंचित तबको की अवधारणा में स्त्री भी सम्मिलित है। जिसको समाज में बराबरी का अधिकार आज भी प्राप्त नही हैआज भी साथ इनके हमारे तथाकथित सभ्य समाज मे कई जगहों पर उत्पीड़न  का शिकार होना पडता है। चाहे वो भारी-भरकम्प दहेज देने के बाद की उत्पीड़न हो या किन्हीं अन्य कारणों से, न जाने कितने तरीकों से आज हर एक दुसरे-तीसरे घर मे ऐसी घटनाऐं होता ही है। इसको रोकने के लिए कई कानून भी बनाये गये है, जैसे-cr.p.c की धारा 125 या घरेलु हिंसा उत्पीड़न निवारण एंव रोकथाम अधिनियम को ही ले लेपरन्तु इसके बाद भी अपराध कम होने की जगह बढ़ ही रहा है, इसका एक जो सबसे बडा कारण सामने आता है तो वह है आम स्त्रियों को कानून की समझ न होना। हम साथिंयो ने अपने फ़र्म के माध्यम से ही महिलाओं मे जागरुकता लाने का अभियान चलाया है। जिससे इस तरह के आपराध होने पर वो घर मे ही घूटती ना रहें, वो कानून के माध्यम से अपने अधिकारों के लिए लडे। क्योंकि इतिहास गवाह है की लडकर ही अधिकारों को हासिल किया जा सकता है मुफ़्त मे यहाँ कुछ भी नहीं मिलता। तभी हम यहाँ सोचते है कि आधी आबादी भी अपनी भागीदारी से फ़र्म को मजबूती प्रदान करेगी, इसके माध्यम से अपनी आवाज को बुलदी के आसमान तक पहुचाऐगी। ऐसी हमे आशा और विश्वास है।

साथियों, फ़र्म की पुर्णत: स्थापना जनवरी 2012 तक की जयेगी, जिसके केन्द्र देश के विभिन्न शहरों जैसे- दिल्ली, पटना, इलहाबाद,और लखनऊ में प्राथमिक चरण में ही की जायेगी, तथा इसके क्षेत्रीय कार्यालय भी आवश्यता अनुसार देश विभिन्न शहरों मे स्थापित किये जायेगें। जिसके माध्याम से हम सभी साथी मिलकर पीडीत और वंचित तबकों के न्याय के लिये कानूनी लडाई लडेंगे, तथा मुफ़्त कानूनी सहायता एंव सलाह उपलब्ध करेंगें। यहाँ हम देश के तमाम जनवादी ताकतों से अपील भी करेंगें की वे हामारे इस प्रयास को सफ़ल बनाने मे अपनी हर तरह से भागीदारी सुनिश्चित करें, जिससे की हमारा ये प्रयास एक विशाल रुप मे जमीनी स्तर पर कार्यान्वित हो सके।




आलेख-

संतोष सिंह एवं
अभिषेक आनन्द 


(legal freedom"a firm for legal solution")


सुचना- 
जल्द ही हम इस लेख को अंग्रेजी में भी प्रकाशित करगे .!.... 


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