व्याथित अबला ( नारी )
हाँ! जी पहचाना आपने मुझे ! मैं वही भारतीय नारी हूँ, जिसे सभ्यता के शुरुआत से ही अबला के पर्याय के रुप मे दर्शाया गया है। सभ्यता के साथ-साथ स्त्री ने अपने को कई रुपों मे व्यथित पाया, चाहे वो वासना तृप्ति के साधन के रुप मे,या बच्चों के जन्मदात्री के रुप मे
और तो और, पूरुषों के दासी के रुप ही तो स्थापित किया गया है हमें।
मैं तब से आज तक बदलते दौर में उस शिल के समान हूँ, जिस पर राम के पैरों की ठोकर से चेतना आयी और उस ठोकर के इन्तजार में इस सुशुप्त समाज में अपनें अनुकूल बयार कि खोज में नि:शब्द मौन हूँ।
स्वतन्त्रता के पुनर्जागरण काल से ही कई महापुरुषों ने हमारी पीडा को शब्द दिये जिससें सती प्रथा का अन्त तथा नारी शिक्षा पर बल मिला। परन्तु स्वतंत्रता के बाद जब भारतीय संबिधान बना तो हमारे कानों मे एक ठंडी हवा की आश सी आई, और आज 21वी सदी में प्रवेश के उपरान्त भी हमारी प्रगति एक अनिश्चितकालीन प्रश्न वाचक शब्द पर टिकी है?
आज मैं अपनी व्यथा आपसे बताती हूँ- जब मैं गर्भ में रहती हूँ तो मेरा जन्म अधर में टिका रहता है कहीं मैं बडी होकर पिता और समाज के ऊपर एक बोझ न बन जाऊ, इसीलिए तो शायद हमें जन्म से पहलें ही मार दिया जाता है। मैंने गर्भ में माँ से कुछ यूँ मिन्नतें कीं जो स्वयं मजबूर थीं-
मेरी करुण पुकार
माँ ! यूं न दुत्कारों मुझे,
मुझे धरा पर आने दो,
मैं लहु हूँ तेरा,
मेरा साकार रुप बन जाने दो।
मैं अंग हूँ तुम्हारा,
पापा का प्यार समेटे,
गर्भ मे पलते-पलते,
मैं न कोइ प्रतिकार करुंगी,
न होंगी कोई ख्वाइशें,
मांग रही हूँ आँचल में एक कोना,
मेरी आँखों को खुल जाने दो।
मैं उठाऊँगी बोझ तुम्हारा,
आँसू तेरे अपनाऊगी,
क्या खता है हमारी,
जो वक्त से पहले दफ़नाओगी।
कैसे होगा पूर्ण संसार,
मैं अगर ना आऊगी,
कैसे आयेगी आँगन में बहू तेरे,
यदि मैं हर गर्भ में मर जाऊँगी ।
इस करुण क्रुंदन के उपरान्त मेरा जीवन यदि दया पर बच भी जायेगा तो मुझे दोयम दर्जा ही मिल पायेगा। यहा से मेरी व्याथा और बढ़ जाती है। बचपन की दहलीज पर आते ही मुझे निठारी का आँगन या उसके बंगला नंबर डी-5 कि चित्कार सुनाई पड़ती है जहॉ मुझ जैसे जाने कितनो को वहशी दरिन्दों ने वासना का समान समझ कर बलात्कार करके नालों मे फ़ेंक दिया जहाँ उनका परिवार उनके शव और न्याय की तलाश में आज भी भटक रहा है।
यदि बचपन में परिवार का सहयोग मिला तो मैं शिक्षित हो जाऊगी पर फ़र्क क्या पड़ता है,मुझ पर अब भी बन्दिशें होगीं। बंदिशे समाज के ठेकेदारों का,जिन्हें हमारे बदलते लिबास में नग्नता नजर आती हैं, या हमारे काम मे अशलीलता । आवाज अगर उठाये तो जुल्म से दबा दी जयेंगीं। यहाँ तक मैं 'पर' इच्छा पर आश्रित हूँ यदि वैवाहिक जीवन मे मेरा हस्तक्षेप मेरे पसंद के जिवन साथी को चुनने क होता है, तो पारिवारिक दबाव में उस इच्छा को दबा दिया जाता है या फिर आगे तो खाप पचांयत जैसी संस्थायें है ही ।
उम्र के आखिरी पडाव में नरी पूर्ण रुप से भोग ली गई है दबा ली गई है, पर अभी उसपर एक नया दर्द आना बाकी है अपनी संतानों के द्वारा दास बनकर वो अनन्त की ओर निहारिती हुई अपने जन्म को कोसती अपनी मरने की दुआ मगंती है।
ये तो समाज,परिवार के माध्याम से दी गई वेदना थी अब उन सबसे बढ़कर हमारे संसद द्वारा दी गई पीड़ा, महिला अधिकारों की नुमाइन्दगी का दम्भ भरने वाले चुने हुये प्रतिनिधि आजादी के 64 वर्षों के उपरांत महिला बिल को पास कराने मे अपनी असमर्थता जताते है परन्तु सांसदों के मानदेय सम्बन्धित बिल 24 घन्टों मे पारित हो जाता है। 2006 मे आया घरेलू हिंसा अधिनियम कानून की किताबों की शोभा भर बढा रहा है।
अन्त मे क्या कहूं इस समाज से जो हमारी इस दशा पर मौन है वे अगर हमारी प्रगति के लिए थोडा भी सहयोग करे तो निश्चित ही हम इस विश्व के धरातल पर सशक्त हस्ताक्षर करेंगें।
सशक्त हस्ताक्षर
अब कोई हाथ न तरसे मेहदी के ख्वाबों से,
अब न कोई सिसकियां किसी गरीब के आंगन से,
अब न हो किसी ‘बाबुल’ के हाथों में अर्थी की सौगात,
अब न लौटे कोई बारात दहेज के अभिषापों से,
माँ के हाथों से तराशी गुडिया,
तोड न पाये कोई बहशी दरिन्दा,
न बिके बाजरों में अब कोई ‘नेहा’
किंचित न सुनाई पडे ऐसे बिलाप,
जिनके बिखरें हों बस्तों के ख्वाब,
बुझी हों एक अदद खुशी प्यास,
हाथों से ये लिखें कल्पना की उडान,
आँखों में इनके पले रंगीन किरण के ख्वाब,
गर्भ की दीवारों से शिशकियां बंद हों,
इनको मिले सम्मानित शबनमी ख्वाबों का महल,
ये लड्कियां बनें किसी के आंगन की किल्कारियां,
दफ़्न हो इनके खिलाफ़ चलने वाली रुढियां,
मिले इनको माँ ,बहन,पत्नी से उपर उठने क अवसर,
बढकर के आगे करें विश्व के भाल पर सशक्त हस्ताझर।
सौरभ तिवारी
सदस्य लिगल फ़्रीडम फ़र्म।
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